रविवार, 31 मई 2015

सच ऐसा भी

सच ऐसा भी 
 
मेरे शहर की 
झुकी हुई इमारते,
यूँ ही नहीं 
गुमनामी में 
खो जाना चाहती हैं. 
खाक में मिल जाना चाहती हैं.
मिटटी हो जाना चाहती हैं.
उन्हें इन्तेज़ार है,
मजबूत कांधों का, 
बाहों का, 
जो उन्हें 
आगोश में ले सके.
बाहुपाश में समां सके 
अपने में समाहित कर सके.
पूर्ण परिपूर्ण सम्पूर्ण कर सके.
हां यह सच है.
मेरे शहर की 
झुकी हुई इमारते 
राह तक रही हैं 
किसी हादसे का.

शनिवार, 23 मई 2015

ख्वाब और ख़ामोशी

ख्वाब और ख़ामोशी 

उजाले रोशनी से मिल,
धूप में घुल मिल जो गये.
बेहद नाजुक कुछ ख्वाब हमारे,
होश के आगोश में बेहोश हो गये. 
भूख की फसल उगी ही थी अभी,
वो आ के जुबाँ पे चरस बो गये.
मौत भी इस कदर मिली हमसे,
कांपते  कांपते खंजर भी रो गये.
आवाज़  निकली भी तो ऐसे,
ज्यों चीख के पाँव खो गये.
धड़कने थम गई जब हमारी, 
हम साँसों के सहारे हो गये.
अंधियारे ओढ़ सियाही की चादर, 
अमावस के चाँद हो गये.
सन्नाटे की सतह पर तब,
गुमनाम ख़ामोशी के लब  खो गये.

रविवार, 17 मई 2015

जीवन और आशा

जीवन और आशा 
 (१)
जीवन है तो गति है 
गति है तो घर्षण है 
घर्षण है तो संघर्ष है
संघर्ष है तो शुष्कता है 
शुष्कता है तो भंगुरता है 
कुछ चिर परिचित से 
नहीं लगते ये शब्द
अगर हाँ तो क्या 
ये जीवन है 
ये संबंध है 
ये रिश्ते हैं 
या ये रिसते हैं 

(२)
जीवन है तो गति है 
गति है तो घर्षण है 
घर्षण है तो ऊष्मा है 
ऊष्मा है तो उर्जा है 
उर्जा है तो 
उर्जावान पंचतत्व 
पंचतत्व है तो आरंभ है 
आरंभ है तो अंत है 
अंत है तो 
नए जीवन की आशा है 
आशा है तो जीवन है 

रविवार, 10 मई 2015

स्त्री

स्त्री 
नम्रता, विनम्रता आभूषण है स्त्रिओं के 
स्त्री हूँ, सो लोभ संवरण न कर सकी.
अपने से बड़ों ने बुरा किया 
या सोचा मेरे लिए,
समझा आशीर्वाद, 
रख लिया सर माथे पर.
छोटों ने कहा कुछ भी,
अबोध है, नासमझ हैं...
समझा लिया मन को. 
कहते हैं पेड़ में फूल लगें,
तो झुक जाता है.
लगे फल 
तो झुक कर दोहरा हो जाता है.
कितना झुकूँ , 
कितना झुकूँ , 
कितना झुकूँ , 
कई बार निकल जाती है
चीख भी हल्की सी,
और कितना झुकोगी,
बस भी करो अब 
नहीं जानती रीढ़, बिना रीढ़
और दोहरी रीढ़ का मतलब,
फिर भी सोचती हूँ 
बिना रीढ़ वालों  से 
दोहरी रीढ़ वाली मैं भली.

रविवार, 3 मई 2015

प्रतिभाएँ

प्रतिभाएँ

जानती हूँ मैं एक 
आदरणीय, परम पूज्यनीय,    
वन्दनीय, प्रातः स्मरणीय 
व्यक्ति को. 
लिखी हैं जिन्होंने हिन्दी संस्कृत में पुस्तकें. 
जीवन के अस्सी दशक बाद आज भी 
वही तेवर, वही मधुर मुस्कान 
आज भी गर्व है जिन्हें अपनी 
एक सम्मानित उपलब्धि ला पर.
पूरे जीवन जो मिला अच्छा लगा ले लिया.
किसी ने प्यार से दिया, भय से दिया,
बेमन से दिया, पर ला पढ़े हैं तो लेना ही है 
कभी ला पर दा भारी पड़ा,
तो दे दिया घर के दो एक लोगों को घर निकाला.
जी नहीं भरा तो, किसी को दुनिया से निकाला. 
कोई नहीं पूछता उन्हें अब 
घर परिवार आस पड़ोस में.  
आज घर में है एक बेटा 
जूझ रहा जिंदगी और मौत से 
खाने के लाले है 
दो समय की रोटी,
बेटे की फीस, पति के स्वास्थ्य के नाम पर, 
बहू ने रखा घर से बाहर कदम ज्यों ही
नहीं खाते वो उसका बनाया कुछ भी.
नहीं जाते रसोई में वो कभी 
वैसे भी रसोई के काम में हाथ तंग है उनका 
पर जेब तंग नहीं.
अपनी और अपनी पत्नी की पेंशन जो है.
खाए जाते हैं रोज काजू बादाम, छोले भठूरे 
कच्चा दूध जो भी बाजार से मिल जाये.
साथ में रहते दूसरे लोग कर रहे हैं जद्दोजहद.   
पर उनकी आज भी गर्दन तनी और छाती चौड़ी.
सोचती हूँ, लिखू कुछ नयी परिभाषाएं, 
निष्ठुरता, अमानवीयता, द्वेष, क्रोध, दंभ
की पराकाष्ठा से परे भी एक पराकाष्ठा है.
विरले ही विचरते हैं जिसमें
और आज मैं भारी मन से
सबके सामने यह स्वीकार करना चाहती हूँ
कि मैं ऐसे किसी इंसान को 
जानने पहचानने से इनकार करती हूँ.
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