रविवार, 29 अप्रैल 2012

खिड़की


खिड़की

  
बरसों पहले नए शहर में
अपनों से दूर आई थी.
जब कभी ऊब जाती,
उकता जाती,
उदास हो जाती,
खोल लेती थी खिडकी.
भर लेती ताज़ा हवा,
नई सांसें.
बना लिए थे कुछ रिश्ते
भईया, भाभी, मौसी, चाची,
बुआ, जीजी, दादी, भतीजे, भतीजियाँ.
जी लेती थी सारे रिश्ते यहीं.
कभी छलछला जाएँ ऑंखें,
सांत्वना देने को उठते थे
कितने ही हाथ,
आंचल मेरी तरफ.
इतने बरसों बाद.
नहीं खुलती कोई भी खिड़की.
अब मेरे शहर में
हर खिड़की पर ए.सी. जो जड गए हैं.
कभी ऊब जाती,
उकता जाती,
उदास हो जाती हूँ
खोलती हूँ विन्डोज़
ढूंढती हूँ कुछ अपने,
कुछ पराये से लगते अपने
कुछ अपने से लगते पराये
छू कर देखती हूँ,
हर तस्वीर, खो जाती हूँ.
चू पड़ती हैं कुछ खारी बूंदे
गिर कर, छिटक कर,
छितरा कर बिखर जाती है
विन्डोज़ के उपर
खिड़की के विपरीत
फ़ैल जाती है यहाँ
हरारत उमस और ऊब
सोचती हूँ खिड़की ...विन्डोज़.
मात्र भाषा का अंतर है
या समाज, पीढ़ी,
मशीनीकरण, मानवीकरण
और सांत्वनाओं के बीच
खिंची एक महीन विस्तृत रेखा.

रविवार, 22 अप्रैल 2012

परिवर्तन या स्थाइत्व

परिवर्तन या स्थाइत्व 



पिछली कविता की व्यथा
कल सागर को क्या सुना दी
मेरी बात समाप्त होने से पहले ही
हाहाकार कर चीत्कार उठा वो
भिगो गया मुझे नख शिख
बोला,
परिवर्तन के लिए मुझे बाध्य करेगा जो
मिटा दूँगा उसे, समाहित कर लूँगा अपने में
मैं भयभीत हो भागने को आतुर हुई.
सो बोल उठा, 
ये तो बस एक ही पहलू है
नदी तो शांत, सौम्य, मृदुल और मीठी होती है
संस्कारी पुरुष, धर्म गुरु, साध्वी, माताएं आती हैं यहाँ.
करते हैं वे आचमन, आराधना, अर्चना और स्नान.
धुल जाते है पाप, 
हो जाता है शांत चित्त.
और मैं..., मैं..हूँ.
"मेचो मैन" "लेडीज़ किलर"
न जाने कितनी ही नदियाँ, उनकी धाराएँ,
कल कल का नाद लिए मीलों का सफर तय कर
मुझमें समाहित होने को आतुर होती हैं.
मुझमें समाहित होती हैं.
अनगिनत बिकनी बालाएं नमकीन होने को,
नमक इश्क का चखने को
खिंची चली आती हैं मेरी ओर.
फिर परिवर्तन क्यों और कैसा?
लौट आई मैं
शायद हर कोई बाध्य नहीं है परिवर्तन को.
मात्र दुर्बल और असहाय ही विवश
किए जाते हैं...
या हो जाते हैं ?

रविवार, 15 अप्रैल 2012

परिवर्तन


परिवर्तन

परिवर्तन सृष्टि का नियम है
ये प्रगति का द्योतक है,
ये ही समय की मांग है.
फिर भी कभी वांछनीय, कभी अवांछनीय है
पुरुष वेश में स्त्री, स्त्री वेश में पुरुष तो आज मान्य है
किन्तु स्त्री का पूर्ण पुरुष,
पुरुष का पूर्ण स्त्री में परिवर्तन
कुछ असहज सा लगता है.
मैं भी जानती हूँ एक ऐसी ही
नदी/ युवती/ स्त्री को
कभी नवयौवना सी अल्हड़, मदमस्त.
अपने ही पाटों को तोड़ बिखरने को आतुर
कभी प्रेयसी बन अपने प्रियतम के पांव पखारती
कभी जननी बन देती जन्म असंख्य कमल कुमुदनियों को
कभी ममता से ओत-प्रोत पुचकारती, दुलराती.
जल जीव-जंतुओं को,
कल उसे ही देखा,
काली, लंबी, सिकुड़ी, सहमी, सिमटी पर सुडौल (टाल, डार्क, हैंडसम)
क्या किसी ने कानों में रस घोला था ?
स्त्री होने से बेहतर है, टाल, डार्क, हैंडसम पुरुष ?
अपने अस्तित्व को बचाए रखने का मात्र उपाय था ?
समाज के उत्पीड़न से बचने का विकल्प ?
कुछ भी हो...
स्वेच्छा से तो न धरा होगा उसने ये रूप.
हाँ! मैंने...

सच मैंने...
अपनी आँखों के सामने
लिंग परिवर्तन होते देखा है.
यमुना नदी को नाले का रूप धरते देखा है.

रविवार, 8 अप्रैल 2012

सम-विषम


सम-विषम



जब भी छा जाता है
जीवन में अन्धकार
शून्य सी हो जाती हूँ
मिटाने को अकेलापन
लगाती हूँ
हम प्याले, हम निवाले,
हम साये, हम शक्ल से
कुछ  अंक,
शून्य से पहले
और हमेशा ही घटती
और विभजित होती हूँ
सम  संख्याओं की तरह
कुछ इस  तरह की
कुछ भी बचा नहीं पाती अपने लिए
मात्र एक शून्य के
विषमताओं से सीखा है
शून्य से परे कुछ अंक लगाना
घटती और विभाजित तो होती हूँ आज भी
इसके बाद भी बचा ही लेती हूँ अक्सर
कुछ अंक अपनी मुट्ठी में
विषम  संख्याओं की तरह
निकलने लगी हूँ अब
सम संख्याओं के जाल से
पहचान जो लेती हूँ
अनेकों सम में छुपे कुछ विषम चेहरे
यूँ बच जाती हूँ
कई बार शून्य होने से
शून्य से अंकों तक
और अंको से शून्य तक
जी लेती हूँ एक सम्पूर्ण जीवन.  

रविवार, 1 अप्रैल 2012

समय का दर्द


समय का दर्द 
मैं समय हूँ
मैं बलवान हूँ,
बदलता रहता हूँ
घाव भर देता हूँ
कभी अच्छा, कभी बुरा
कभी किसी के लिए ठहरता नहीं
ये उपमाएं दी हैं मुझे, तुम ही लोगों ने
पर मैं क्या और कैसा हूँ
कोई नहीं जानता
मेरे सिवाय
न उठ जाये लोगों का विश्वास मुझसे
उतरने को उन पर खरा
क्या क्या न किया मैंने.
सच तो ये है कि मेरे भी दो चेहरे हैं
मैं अधीर हूँ
दूसरों के दर्द कम करते,
घाव भरते,
मैं स्वयं न भरने वाला
एक घाव हो गया हूँ
जिधर देखो
घाव ही घाव
दर्द ही दर्द
कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे
कितना-कितना भरूं
मैं घाव, दुःख, दर्द, परेशानियों का
अथाह सागर हो गया हूँ
मैं अब ठहरना चाहता हूँ
रुकना चाहता हूँ
थम जाना चाहता हूँ.
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