रविवार, 25 अप्रैल 2010

विस्तार

विस्तार





मेरे नैनों के नीलाभ व्योम में,

एक चन्दा, एक बदली और

कुछ झिलमिल तारे रहते हैं.

सावन में,

जब घनघोर घटायें उमड़ घुमड़ कर,

आँखों में खो जाती हैं.

चन्दा, तारे सो जाते हैं.

वर्षों मरु थे, जो पोखर सारे,

स्वयमेव ही भर जाते हैं.

कभी शीत बहे तो,

चंदा, तारे ओढ़ दुशाला,

लोचन में सो जाते हैं.

दिग्भ्रमित हुए कुछ खग विहग.

जब दृग में वासंत मनाते हैं.

उषा किरण  की रक्तिम डोरें,

जाने अनजाने,

नख में उलझाते जाते हैं.

तब पलकों की झालर के कोनें  ,

आप ही खुल जाते हैं.

ओस के मोती सरक - सरक कर,

आंचल में भर जाते हैं.

गर्मी की,

तपती रातों में चख में खर उग आते हैं.

भीष्म की सी शर शैय्या में,

तब चंदा तारे अकुलाते हैं.

जाने क्या कुछ खोया मैंने,

ये झिलमिल तारे पाने को.

पर सावन रहा सदा नयनों में,

जाने क्यों मधुमास न आया.

अम्बर रहा सदा अंखियों में,

पर मैंने क्यों विस्तार न पाया!

मैंने क्यों विस्तार न पाया!!

रविवार, 18 अप्रैल 2010

राजनीति

राजनीति





राजनीति मेरे रग रग में बसी है

लूट, खसोट, सेंधमारी और क़त्ल करवाए मैंने.

फिर उन्हीं  के आशियाने भी बसवाये मैंने.

हर राजनीतिज्ञ की तरह  अपने इर्द गिर्द,

अभेद्य सुरक्षा आवरण भी रचाए मैंने.

हर सुरक्षा चूक की तरह,

यहाँ भी एक चूक हो गयी.

मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल हो गयी.

करवाती थी, लोगो से, लोगो के लिए, जो मैं.

अपने लिए अपने आप ही कर बैठी वो मैं.

तख्ता पलट गया मेरा.

मोहल्ले की संसद में मजबूर हो गयी मैं.

आम राजनेता की तरह, मायूस हो नहीं,

बड़े अभिमान से नैतिक जिमेद्दारी भी ले बैठी मैं.

आज तक कर रही हूँ,

अपनी भूल का प्रायश्चित मैं.

जो लोग किया करते थे,

कभी दर पर मेरे.

वो आमरण अनशन आज भी किये बैठी हूँ मैं.

जो किया करती थी कभी,

हजारों दिलों पर राज, मैं.

तेरे दिल के द्वार पर

दरबान बनी बैठी हूँ, मैं.

हाँ, इस प्रेम की राजनीति में,

जो कुछ कबूला है मैंने,

वो सच है.

पर कैसे गिर गयी,

मेरी मग़रूर सरकार.

इसका मुझे आज भी अचरज है.





रविवार, 11 अप्रैल 2010

प्रपंच


प्रपंच




दर्द की दीवार हैं,

सुधियों के रौशनदान.

वेदना के द्वार पर,

सिसकी के बंदनवार.

स्मृतियों के स्वस्तिक रचे हैं.

अश्रु के गणेश.

आज मेरे गेह आना,

इक प्रसंग है विशेष.

द्वेष के मलिन टाट पर,

दंभ की पंगत सजेगी.

अहम् के हवन कुन्ड में,

आशा की आहुति जलेगी.

दूर बैठ तुम सब यहाँ

गाना अमंगल गीत,

यातना और टीस की,  

जब होगी यहाँ पर प्रीत.

पोर पोर पुरवाई पहुंचाएगी पीर.

होंगे बलिदान यहाँ इक राँझा औ हीर.

खाप पंचायत बदलेगी,
 
आज दो माँओं की तकदीर.




रविवार, 4 अप्रैल 2010

अन्वेषण


अन्वेषण





आज की इस दौड़ में

सब कुछ नया करने की होड़ में,

कितना कुछ बदल गया है.

असमंजस में पड़ गयी मैं,

जब सुना,

इतने बरसों बाद भी,

नयापन नहीं है प्रेम संवाद में,

डूब गया मन,

तत्क्षण ही  तम के ताल में.

ऊपर आने, उबराने के,

तलाशने लगा विकल्प.

एक कंचन  कौंध का  क्षीण सा संबल ले,

उत्प्लावित हो उठा.

निराशा के  निरीह पोखर से,

निर्वस्त्र बौखलाया सा.

आर्कमिडिज की भांति,

चीत्कार उठा मन

यूरेका, यूरेका, यूरेका,

क्योंकि पा लिया था उसने,

विज्ञान के माध्यम से

प्रेमाभिव्यक्ति में एक नयापन,

किंकर्तव्यविमूढ़ सा कह ही उठा,

मैं चंचल चपला, तुम आलाप बेचारे

मैं त्वरित रहूँ तू अनुचर हो जा रे

हैं दूर दूर पर साथ सदा रे

मैं समीकरण, तुम सिद्धांत  हमारे.



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